Monday, September 27, 2010

तेरे ख़त :राजेन्द्रनाथ 'रहबर'/Jagjit Singh.

Rishtey, तेरे ख़त
Café Reminiscence
तेरी ख़ुशबू में बसे ख़त मै जलाता कैसे - राजेन्द्रनाथ 'रहबर'










प्यार की आख़री पूँजी भी लुटा आया हूँ
अपनी हस्ती को भी लगता है मिटा आया हूँ
उम्र भर की जो कमाई थी गँवा आया हूँ
तेरे ख़त आज मै गंगा में बहा आया हूँ
आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ

तूने लिखा था जला डालूं मै तेरी तहरीरें
तूने चाहा था जला डालूं मै तेरी तस्वीरें
सोच ली मैने मगर और ही कुछ तदबीरें
तेरे ख़त आज मै गंगा में बहा आया हूँ
आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ

तेरी ख़ुशबू में बसे ख़त मै जलाता कैसे
प्यार में ड़ूबे हुए ख़त मै जलाता कैसे
तेरे हाथों के लिखे ख़त मै जलाता कैसे
तेरे ख़त आज मै गंगा में बहा आया हूँ
आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ

जिनको दुनिया की निगाहों से छुपाए रखा
जिन को एक उम्र कलेजे से लगाए रखा
दीन जिनको जिन्हे ईमान बनाए रखा

जिनका हर लफ़्ज़ मुझे याद था पानी की तरह
याद थे मुझको जो पैग़ाम-ए-ज़ुबानी की तरह
मुझको प्यारे थे जो अनमोल निशानी की तरह

तूने दुनिया की निगाहों से जो बचाकर लिखे
सालहासाल मेरे नाम बराबर लिखे
कभी दिन में तो कभी रात में उठकर लिखे

तेरे रुमाल तेरे ख़त तेरे छल्ले भी गये
तेरी तस्वीरें तेरे शोख़ लिफ़ाफ़े भी गये
एक युग खत्म हुआ युग के फ़साने भी गये
तेरे ख़त आज मै गंगा में बहा आया हूँ
आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ

कितना बेचैन उन्हे लेने को गंगाजल था
जो भी धरा था उन्ही के लिये वो बेकल था
प्यार अपना भी तो गंगा की तरह निर्मल था
तेरे ख़त आज मै गंगा में बहा आया हूँ
आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ

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