Sunday, February 12, 2012

रेत



Café Reminiscence , Ret , Poem












सोचा  था  मुट्ठी  में  कुछ  यादों  को  ले   कर  कुछ  दूर  चलूँ
थोड़ी दूर चल कर देखा  तो पाया वो सब कब हाथों से फिसल गए जैसे की मुट्ठी से रेत , की पता ही नहीं चला .
रह गया फिर वो ही खालीपन ,मुठी रही खाली की खाली ,
बस उन यादों के कुछ पल चिपके  रह गए रेत के कुछ कणों की तरह .
शायद वो बचे हुए पल ही थे जो मेरे अपने थे , तो वो जो बाकि जो छूठ गए थे वो किसके थे
सोचा तो पाया की वो थे तो मेरे ही लेकिन शायद उन पर मेरा उतना हक ही नहीं  था .
या मेने बेवजह कोशिश करी उन्हें साथ लेकर चलने की ,
रेत को भी कभी भला कोई बांध कर  चल पाया हे कोई .
मुट्ठी को जितना जोर से दबाओगे  तो रेत उतनी ही तेजी से फिसलेगी , और निशान छोड़  जाएँगी
फिर सोचा जाने दो वो रेत के कण ही तो थे ,वो हाथों की लकीरें तो नहीं बदल पाएंगे , 
शायद वो थे ही नहीं उन लकीरों में कभी भी , 
या शायद सिर्फ ह़ो  थोड़ी  देर  के  लिए  ही , 
हाथों  में बहुत सी छोटी लकीरें थोड़े ही दिखती हैं 
शायद वो भी हो कहीं उन छोटी लकीरों में    शायद  ..
वो हमेशा ही रहे होँ मेरी destiny का एक हिस्सा बन कर , उतना ही वजूद रहा हो उनका मेरे लिए ,,, शायद .


सोचा  था मुड कर ना देखूं , ना ही ढूँढू उन रेत के कणों को , भला वो भी कभी मिले हें किसीको वापस .
फिर सोचा चलो आगे बड़ो  ,कुछ पल तो हें यादों  के आखिर साथ में  जिन्हें मेने संभाल कर रखा हे पुडिया में बांध कर ,
रेत के कणों के रूप में.

Poem by Me 

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