एक सपना जन्म् ले रहा हे , बरसों तक कहीं दबा पड़ा था , बीच बीच में कभी कभार बाहर आता था लेकिन फिर कहीं खो जाता था .
सपने में पानी है हरियाली है बड़े बड़े दरख़्त हैं , शायद कच्ची मिटटी से बना है ये सपना ,तो परिंदो ने भी पूछा कि क्या उनके लिए भी वहाँ कोई जगह है या रखी है , अब डिमांड आयी है तो ख्याल तो रखना पड़ेगा .
सोचता हूँ कि क्यों ना सपने को थोड़ी धूप दिखाई जाये , खुल के आने दो सामने ,कोई आकार दूं , हवा लगने दूं , उड़ने दूं उसे , क्यों बांध रखा है , जाने दो , और फिर उसे आज़ाद छोड़ने के बाद पकड़ पाओ तो वो तुम्हारा , नहीं तो समझो गया , खो गया ,शायद ज्यादा कोशिश नहीं करी .
अच्छी बात ये है इस सपने में कोई चेहरे नहीं हैं , हमेशा कि तरह , अगर हैं भी तो वो अनजान हैं .सपने में एक गौंव वाली गरीब सी औरत दिखती है शायद राजस्थान से , " Lekin " की डिंपल जैसी , पूछती है क्या वो अपने मिटटी के चूल्हे के साथ आ सकती है ,कसम से दीवारें काली नहीं करूंगी , और कहती है कभी मोटी रोटी खा कर देखना मेरी .बाल उसके भी उलझे रहते हैं , चेहरा धूप से झ़ुलस गया है लेकिन फिर भी चमकता है ,चहरे की लकीरें एक ज़िन्दगी बयां करती हैं .
और कौन कौन जुड़ा है इस सपने से , बस एक सुकून देता है , एक उम्मीद जगाता है hey की अभी बहुत कुछ करना बाकि है शायद फिर कहूँ “ Life has just begun”.
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